Wednesday, August 27, 2008

इसी जद्दोजहद में .........

इसी जद्दोज़हद में
ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं
हर्फ़ हर्फ़ जोड़ कर ज्यों
सफे भर रहे हैं

अधूरी है रदीफ़
काफिया नहीं है पूरा
तुकबंदी मिलाने की बस
जुगत कर रहे हैं

ज़िन्दगी गो कि
इक ग़ज़ल है
रूठा हुआ हमसे
अभी ये शगल है
अशआरों की तरह
उमड़ते हैं
चेहरे कई लेकिन
'मीटर' जो बैठ जाए
वाही भर पन्नो पर
उतर रहे हैं
दुष्यंत ..............

3 comments:

akshay said...

its very nice...

Ashish Chaudhary said...

meri jann..sach kahoo..i m impressed...behad prabhavi.......

Puneet Bhardwaj said...

ख़्यालों की झुरमुट है,
क्या कहूं अजीब सी कशमकश है,
क़ागज़ कोरे हैं और
क़लम भी बेबस है...