इसी जद्दोज़हद में
ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं
हर्फ़ हर्फ़ जोड़ कर ज्यों
सफे भर रहे हैं
अधूरी है रदीफ़
काफिया नहीं है पूरा
तुकबंदी मिलाने की बस
जुगत कर रहे हैं
ज़िन्दगी गो कि
इक ग़ज़ल है
रूठा हुआ हमसे
अभी ये शगल है
अशआरों की तरह
उमड़ते हैं
चेहरे कई लेकिन
'मीटर' जो बैठ जाए
वाही भर पन्नो पर
उतर रहे हैं
दुष्यंत ..............
तुम्हारे लिए
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मैं उसकी हंसी से ज्यादा उसके गाल पर पड़े डिम्पल को पसंद करता हूँ । हर सुबह
थोड़े वक्फे मैं वहां ठहरना चाहता हूँ । हंसी उसे फबती है जैसे व्हाइट रंग ।
हाँ व्...
5 years ago