बीते कुछ सालों के राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र डालें तो आसानी से यह बात समझ आ जाती है की भारतीय युवा शक्ति सार्थकता के पथ पर अग्रसर है की नहीं। चाहे ओलम्पिक में स्वर्ण जीतने की 'अभिनव' शुरुआत हो या शह और मात से मिला विश्वविजय का 'आनंद'। चाहे मुष्टि प्रहारों से हासिल 'बिजय' हो या फौलादी बाजुओं की 'सुशील' जीत। हरी गेंदों पर करा प्रहार कर 'सनसनी' बनी सानिया हो या अपनी एकादश के साथ जग जीतने वाले 'महेंद्र' , हर कहीं बही एक ही हवा..युवा युवा युवा...। न सिर्फ़ खेलों में बल्कि राजनीति में भी युवाओं ने दर्शा दिया है की वे 'नवीन' विचारधारा के पोषक हैं और इतने 'राहुल' हैं की जिम्मेदारियों को समझ कर उनका निर्वहन कर सकते हैं। बॉलीवुड अगर सीमायें लाँघ कर सात समुन्दर पार अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है तो इसके पीछे ईंधन का काम युवा शक्ति ही कर रही है। कोई हैरत नहीं की आज का युवा समय आने पर अपने किसी साथी 'मंजुनाथन' की हत्या पर अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए खड़ा हो जाता है तो 'राधे भइया' की तरह बाल बढाकर या 'गजनी' की तरह सिर मुंडाकर मौजमस्ती और फैशनपरस्ती करने में भी उतना ही अव्वल है। अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य पर देश का नाम प्रतिष्ठापित करने में युवाओं की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। देश की ४२ फीसद आबादी युवा है , तभी तो अन्तरिक्ष के विस्तार से लेकर ज्ञान के प्रसार और खेल के मैदान की हुंकार तक भारतीय युवाओं का वर्चस्व है। राष्ट्रीय पटल पर भी युवाओं ने अपनी उपस्थिति का अहसास हर क्षेत्र में कराया है। किसी कवि की ये पंक्तियाँ भी यहाँ याद आ रही है.... यौवन सुरा जगी है...मेरे तनबदन में ये कैसी आग लगी है...। तो युवा जाग्रत है, चिंगारी अब आग बन गई है। वक्त आ गया है की अब तथाकथित 'अनुभवी' बुजुर्ग सुपरवाईजर की भूमिका अदा करें और फिल्ड ऑफिसर के रूप में युवाओं को आगे आने का मौका दिया जाए।
दुष्यंत...