Friday, November 28, 2008

किसी और के पास कहाँ ....

तुम्हारी जो ख़बर हमें है
वो किसी और के पास कहाँ
देख लेता हूँ कहकहों में भी
आंसू के कतरे
ऐसी नजर किसी और के पास कहाँ

ज़माने ने ठोकरें दी पत्थर समझकर
तुने मुझे सहेज लिया मूरत समझकर
होगी अब हमारी गुजर
किसी और के पास कहाँ

उम्र भर देख लिया
बियाबान में भटक कर
हासिल हुआ कुछ नहीं
दुनिया में अटककर
तूने की जैसी कदर
किसी और के पास कहाँ

रास्ता दिखा दिया तुने
मेरे भटकाव को
साहिल पे ला दिया
थपेडों से नाव को
मुझ पर जितना तेरा असर
किसी और के पास कहाँ

दुष्यंत .......

Wednesday, August 27, 2008

इसी जद्दोजहद में .........

इसी जद्दोज़हद में
ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं
हर्फ़ हर्फ़ जोड़ कर ज्यों
सफे भर रहे हैं

अधूरी है रदीफ़
काफिया नहीं है पूरा
तुकबंदी मिलाने की बस
जुगत कर रहे हैं

ज़िन्दगी गो कि
इक ग़ज़ल है
रूठा हुआ हमसे
अभी ये शगल है
अशआरों की तरह
उमड़ते हैं
चेहरे कई लेकिन
'मीटर' जो बैठ जाए
वाही भर पन्नो पर
उतर रहे हैं
दुष्यंत ..............

Tuesday, July 29, 2008

सावन के आने पर ......

मेघों का अम्बर में लगा अम्बार
थकते नहीं नैना दृश्य निहार
हर मन कहे ये बारम्बार
आहा! सावन..कोटि कोटि आभार

धरा ने ओढी हरित चादर निराली
लहलहाए खेत बरसी खुशहाली
तन मन भिगोये रिमझिम फुहार
आहा! सावन.. कोटि कोटि आभार


भीगे गाँव ओ' नगर सारे
थिरकीं नदियाँ छोड़ कूल किनारे
अठखेलियाँ करे पनीली बयार
आहा! सावन.. कोटि कोटि आभार
दुष्यंत....

Saturday, July 19, 2008

यूँ ही .....

यूँ ही चुप रहोगे
न हाल-ऐ-दिल कहोगे
तो इस बाज़ार में
तुम्हे कौन चुनेगा
ये आवाजों की नुमाइश है
जान लो ज़रा
खामोशियों की सदायें
यहाँ कौन सुनेगा
दुष्यंत..........

चंद मुट्ठी अशआर

जब जब दिल में टीस उठी
औ' मन हुआ बीमार
मैंने ख़ुद पर वार लिए
चंद मुट्ठी अशआर
दुष्यंत.....

Wednesday, June 25, 2008

संसद भवन में.......


स्वांग धरे तरै तरै
कुरता और टोपी धरे
देखो कैसे कैसे आए
संसद भवन में

बातें करे बड़ी बड़ी
जनता की है किसे पड़ी
वही तो नेता कहाए
संसद भवन में

राज राज करे बस
नीति सारी भूल जाएँ
हैं सारे छंटे-छंटाये
संसद भवन में

भूख से हैं मरते जहाँ
हजारों औ लाखों लोग
ये बिना डकारे खाएं
संसद भवन में

इसे खरीद, उसे बेच, इसे जोड़, उसे तोड़
जैसे तैसे करके, लेते ये आकार हैं
ऐसे में भलाई की सुधि कब कौन लेवे
कहते हैं गठबंधन है, हम लाचार हैं
तुम्हारी तो परवाह करेंगे थोड़ा रुक कर
हाल-फिलहाल तो बचानी सरकार है
तुमने चुना, और चुनो, अब बैठे सर धुनों
पाँच साल हम बिताएं, संसद भवन में

कोई पांचवी है फ़ैल, कोई बीए एमए पास
अन्दर तो लगते सारे जाहिल गंवार हैं
इसने कही उसने सुनी, हो गई जो कहासुनी
हो जाती है गुत्थमगुथ्था, जूतमपैजार है
देख कर ये दृश्य सारे, अपने टीवी सैटों पर
देश की ये जनता होती कितनी शर्मसार है
शीत हो या मानसून सत्र, प्रश्न हो या शून्यकाल
मच्छी बाजार नजर आए संसद भवन में

चौरासी हो, बाबरी हो, बॉम्बे हो या हैदराबाद
कहीं न कहीं सबके अन्दर ही सूत्रधार हैं
कोई रचे नंदीग्राम, कहीं कोई और संग्राम
सारे के सारे इनके महान शाहकार हैं
बिना लाज, बिना शर्म, करते जाएँ ऐसे करम
देश की जनता से नहीं, इनको सरोकार है
निर्ममता से मरवाते हैं, जैसे ये निर्दोषों को तो
क्यूँ न हम भी आग लगायें संसद भवन में ....

दुष्यंत.............

Tuesday, June 10, 2008

मुझे रात में ख़ुद से ..........

मुझे रात में ख़ुद से बेख़याली दे दे
जिससे खूबसूरत मेरी सहर बन जाए

या तो पलकों से बहता दरिया सूख जाए
या अब बहे तो ज़हर बन जाए

सोचता हूँ कहीं से खरीद लूँ वो चीज़ें
जिनसे ये दीवारें घर बन जाए

नए पौदे दिल की क्यारियों में रोप दो यारों
ज़रा और हसीं ये शहर बन जाए

दुष्यंत...........


Friday, May 9, 2008

मन से नमन आज तेरा है माँ.......


माँ
तेरे नेह से, दुलार से, ममता की फुहार से
भीगता रहे ये जीवन, आज पुलकित है मन
तेरी महानता के आगे, आज छोटा पड़ गया आसमां
मन से नमन आज तेरा है माँ

तेरी गोद का बिछौना, तेरा आँचल मेरा खिलौना
तेरी प्यार भरी थपकी, वो सुकून भरी झपकी
तेरी प्यार भरी झिड़की, तेरे हाथों की मार
मैं पहचानता हूँ माँ उसमे छुपा दुलार

विधाता का रूप तू ही, सृष्टि का स्वरूप तू ही
ईश्वर करे मुझ पर रहे, आशीर्वाद तेरा सदा यूं ही
ओ माँ तेरे होने से ही, हर जीव का सफल जीवन है
मात्रत्व दिवस पर माँ तुझको मन से वंदन है
दुष्यंत......

Thursday, May 1, 2008

बादलों का .........


बादलों का काफिला आता हुआ देख कर अच्छा लगता है
प्यासी धरती को सावन का मंज़र अच्छा लगता है

इस भरी महफिल-ऐ-दुनिया मे उसका चंद लम्हों के लिए
मुझसे बात करना, मिलना और देखना अच्छा लगता है

जिन का सच होना किसी सूरत मे भी मुमकिन नहीं
ऐसी ऐसी बातें अक्सर सोचकर अच्छा लगता है

वो तो क्या आएगा मगर खुश्फह्मियों के साथ साथ
सारी सारी रात हमको जागना अच्छा लगता है

मैं उसे हाल-ऐ-दिल नहीं बताऊंगा मगर
ख्वाबों मे ऐसे वाकये बुनकर अच्छा लगता है

पहले पहले तो निगाहों में कोई जंचता नहीं था
रफ्ता रफ्ता अब दूसरा फ़िर तीसरा अच्छा लगता है

दुष्यंत ............

Wednesday, April 30, 2008

अपने होठों पर ....

अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो घर जलाना चाहता हूँ

आखिरी हिचकी तेरे ही दर पर आए अब
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ

जनाब मोहतरम क़तील शिफाई .....

Wednesday, April 23, 2008

मैंने इस दिल पर.....


मैंने इस दिल पर बाँध सा बना दिया है
मुहब्बत का दरिया अब इसके पार होता नहीं

जाने क्यों अब जब भी लिखने बैठता हूँ
मेरी ग़ज़ल मे इश्क का अशआर होता नहीं

तुझसे नजदीकियां खो न दूँ इसलिए फासला रखा है मैंने
खुशनसीब हूँ की तू इस पर बेजार होता नहीं

आजकल नई हवा बह रही है इस शहर में
वरना यहाँ मौसम इतना खुशगवार होता नहीं
दुष्यंत........

अगर तलाश करो तो कोई मिल ही जाएगा
मगर हमारी तरह कौन तुझे चाहेगा

तुझे जरुर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो ऑंखें हमारी कहाँ से लाएगा

न जाने कब तेरे दिल पर नई दस्तक हो
मकान खाली हुआ है कोई तो आएगा

मैं अपनी राह में दीवार बन कर बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रस्ते से आएगा

तुम्हारे साथ ये मौसम फरिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सताएगा

सधन्यवाद, डॉ. बशीर बद्र
दुष्यंत..........

Monday, April 7, 2008

नवसंवत्सर मंगलमय हो .......

नव्दिवस, नव्मास नववर्ष और नव उल्लास लिए
फागुन गया चैत्र आया संग खुशियों का आभास लिए

शुभ हर घड़ी है आज संग शगुनो का वास लिए
करे नवारम्भ इस वर्ष का मन में विपुल विश्वास लिए

सुखी रहें निरोगी रहें किसी विपदा से न सामना हो
गुडी पड़वा तथा नवसंवत्सर पर 'दुष्यंत' की शुभकामना हो

दुष्यंत............

Saturday, March 29, 2008

एक वाकया चंद पंक्तियाँ ........

भोपाल से रतलाम के सफर मे एक जोडा सामने की सीट पर ट्रेन मे बैठा था। मोह्तार्रम मुसलसल मोहतरमा पर बरस रहे थे और इल्जाम था कि वे इतनी ज्यादा पार्टियों मे क्यों शामिल होती हैं। लगातार नए पुराने वाकयों का हवाला देकर यह दर्शाने कि कोशिश की जा रही थी कि उनका बार बार शादी ब्याह या पार्टियों मे आना जाना उनके मियां को बिल्कुल पसंद नहीं है। हद तो तब हो गयी जब उन्होंने इसे लेकर उन्हें बेशर्म तक कह डाला। मैं उन्हें देखे जा रहा था और अचानक ये पंक्तियाँ जुबान पर आ गई ........


महफिलों मे आना जाना है तेरी बेतकल्लुफी
मुझे बेहयाई का गुमान हो गया
एक मन मुझसे कुछ कहे एक कहे कुछ
भीतर ही भीतर एक कत्ल ऐ आम हो गया ...........

पगली सी इक लड़की ........

मैं जब चाँदनी के साथ
छत पर टहलता हूँ
चाँद हाथों से छुपाती है
वो पगली सी लड़की

उसकी इस चुहल पर
जब खीज उठता हूँ मैं
तो खिलखिलाती मुस्कुराती है
वो पगली सी लड़की

मैं जब कागज़ पर
स्याही से ग़ज़ल लिखता ह
तो संग संग गुनगुनाती है
वो पगली सी लड़की

कभी जिदें बच्चों की मानिंद
कभी बुजुर्गों की सी बातें
मुझको हैरत दे जाती है
वो पगली सी लड़की

नाम नहीं जाना
शक्ल नहीं देखी
सिर्फ़ ख्वाबों को सजाती है
वो पगली सी लड़की
............ दुष्यंत

सृष्टि की अनमोल कृति ........



सृष्टि की अनमोल कृति
कभी दुलारती मां बन जाती
कभी बहन बन स्नेह जताती
बेटी बन जब पिया घर जाती
आँसू की धारा बह जाती
कभी पत्नी बन प्यार लुटाती
बहु बन घर को स्वर्ग बनाती
नारी तेरे बहुविध रूपों से
यह संसार चमन है
नारी दिवस पर हर नारी को बारम्बार नमन है

..........दुष्यंत

आओ हम तुम मिलकर ........


आओ हम तुम मिलकर
इस जहाँ में सच्चा प्यार ढूँढें
कुछ तुम्हारी रूबाइयों को देखें
कुछ मेरी ग़ज़ल के अशआर ढूँढें

मुहब्बत का दरिया भी रीत गया
ठूंठ इश्क के बाग़ हुए
इस चमन मे अब खिजां की बस्ती है
आओ हम इसके लिए बहार ढूँढें

कभी यहाँ शायर मुहब्बत की ग़ज़ल कहते थे
मौसिकी से दिल के साज़ बजते थे
वक्त की गर्द मे कहीं दफ्न हो गए
आओ हम वो सारे फनकार ढूँढें

कई बने मरीज ऐ इश्क कई दर्द ऐ दिल का शिकार हुए
कह गए हैं पुराने शायर यहाँ लोग ऐसे दिलदार हुए
ज़माने की भीड़ मे कहीं गुम हो गए
आओ हम वो सारे बीमार ढूँढें

.........दुष्यंत